Monday, 4 November, 2024

Kiskindha Kand Doha 15

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Kiskindha Kand  							Doha 15

Kiskindha Kand Doha 15

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वर्षाऋतु का वर्णन
 
दादुर धुनि चहु दिसा सुहाई । बेद पढ़हिं जनु बटु समुदाई ॥
नव पल्लव भए बिटप अनेका । साधक मन जस मिलें बिबेका ॥१॥
 
अर्क जबास पात बिनु भयऊ । जस सुराज खल उद्यम गयऊ ॥
खोजत कतहुँ मिलइ नहिं धूरी । करइ क्रोध जिमि धरमहि दूरी ॥२॥
 
ससि संपन्न सोह महि कैसी । उपकारी कै संपति जैसी ॥
निसि तम घन खद्योत बिराजा । जनु दंभिन्ह कर मिला समाजा ॥३॥
 
महाबृष्टि चलि फूटि किआरीं  । जिमि सुतंत्र भएँ बिगरहिं नारीं ॥
कृषी निरावहिं चतुर किसाना । जिमि बुध तजहिं मोह मद माना ॥४॥
 
देखिअत चक्रबाक खग नाहीं । कलिहि पाइ जिमि धर्म पराहीं ॥
ऊषर बरषइ तृन नहिं जामा । जिमि हरिजन हियँ उपज न कामा ॥५॥
 
बिबिध जंतु संकुल महि भ्राजा । प्रजा बाढ़ जिमि पाइ सुराजा ॥
जहँ तहँ रहे पथिक थकि नाना । जिमि इंद्रिय गन उपजें ग्याना ॥६॥
 
(दोहा)
कबहुँ प्रबल बह मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं ।
जिमि कपूत के उपजें कुल सद्धर्म नसाहिं ॥ १५(क) ॥
 
कबहुँ दिवस महँ निबिड़ तम कबहुँक प्रगट पतंग ।
बिनसइ उपजइ ग्यान जिमि पाइ कुसंग सुसंग ॥ १५(ख) ॥

 

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