चंद्र का उदय देखकर चर्चा
पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी । परम प्रताप तेज बल रासी ॥
मत्त नाग तम कुंभ बिदारी । ससि केसरी गगन बन चारी ॥१॥
बिथुरे नभ मुकुताहल तारा । निसि सुंदरी केर सिंगारा ॥
कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई । कहहु काह निज निज मति भाई ॥२॥
कह सुग़ीव सुनहु रघुराई । ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई ॥
मारेउ राहु ससिहि कह कोई । उर महँ परी स्यामता सोई ॥३॥
कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा । सार भाग ससि कर हरि लीन्हा ॥
छिद्र सो प्रगट इंदु उर माहीं । तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं ॥४॥
प्रभु कह गरल बंधु ससि केरा । अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा ॥
बिष संजुत कर निकर पसारी । जारत बिरहवंत नर नारी ॥५॥
(दोहा)
कह हनुमंत सुनहु प्रभु ससि तुम्हारा प्रिय दास ।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास ॥ १२(क) ॥
पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान ।
दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान ॥ १२(ख) ॥
॥ नवान्हपारायण सातवाँ विश्राम ॥