श्रीराम के बाण से रावण का मुकुट गिरा
देखु बिभीषन दच्छिन आसा । घन घंमड दामिनि बिलासा ॥
मधुर मधुर गरजइ घन घोरा । होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा ॥१॥
कहत बिभीषन सुनहु कृपाला । होइ न तड़ित न बारिद माला ॥
लंका सिखर उपर आगारा । तहँ दसकंघर देख अखारा ॥२॥
छत्र मेघडंबर सिर धारी । सोइ जनु जलद घटा अति कारी ॥
मंदोदरी श्रवन ताटंका । सोइ प्रभु जनु दामिनी दमंका ॥३॥
बाजहिं ताल मृदंग अनूपा । सोइ रव मधुर सुनहु सुरभूपा ॥
प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना । चाप चढ़ाइ बान संधाना ॥४॥
(दोहा)
छत्र मुकुट ताटंक तब हते एकहीं बान ।
सबकें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान ॥ १३(क) ॥
अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आइ निषंग ।
रावन सभा ससंक सब देखि महा रसभंग ॥ १३(ख) ॥