अंगद का पैर हिलाने में रावण सहित सर्व नाकामियाब
कपि बल देखि सकल हियँ हारे । उठा आपु कपि कें परचारे ॥
गहत चरन कह बालिकुमारा । मम पद गहें न तोर उबारा ॥१॥
गहसि न राम चरन सठ जाई । सुनत फिरा मन अति सकुचाई ॥
भयउ तेजहत श्री सब गई । मध्य दिवस जिमि ससि सोहई ॥२॥
सिंघासन बैठेउ सिर नाई । मानहुँ संपति सकल गँवाई ॥
जगदातमा प्रानपति रामा । तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा ॥३॥
उमा राम की भृकुटि बिलासा । होइ बिस्व पुनि पावइ नासा ॥
तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई । तासु दूत पन कहु किमि टरई ॥४॥
पुनि कपि कही नीति बिधि नाना । मान न ताहि कालु निअराना ॥
रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो । यह कहि चल्यो बालि नृप जायो ॥५॥
हतौं न खेत खेलाइ खेलाई । तोहि अबहिं का करौं बड़ाई ॥
प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा । सो सुनि रावन भयउ दुखारा ॥६॥
जातुधान अंगद पन देखी । भय ब्याकुल सब भए बिसेषी ॥७॥
(दोहा)
रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज ।
पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज ॥ ३५(क) ॥
साँझ जानि दसकंधर भवन गयउ बिलखाइ ।
मंदोदरी रावनहि बहुरि कहा समुझाइ ॥ ३५(ख) ॥