सीता को देखकर राम भी मंत्रमुग्ध
(चौपाई)
कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि । कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि ॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही ॥ मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही ॥१॥
अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा । सिय मुख ससि भए नयन चकोरा ॥
भए बिलोचन चारु अचंचल । मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल ॥२॥
देखि सीय सोभा सुखु पावा । हृदयँ सराहत बचनु न आवा ॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई । बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई ॥३॥
सुंदरता कहुँ सुंदर करई । छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई ॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी । केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी ॥४॥
(दोहा)
सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि ।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि ॥ २३० ॥