भरत के रामप्रेम की भारद्वाज मुनि ने प्रसंशा की
कीरति बिधु तुम्ह कीन्ह अनूपा । जहँ बस राम पेम मृगरूपा ॥
तात गलानि करहु जियँ जाएँ । डरहु दरिद्रहि पारसु पाएँ ॥१॥
सुनहु भरत हम झूठ न कहहीं । उदासीन तापस बन रहहीं ॥
सब साधन कर सुफल सुहावा । लखन राम सिय दरसनु पावा ॥२॥
तेहि फल कर फलु दरस तुम्हारा । सहित पयाग सुभाग हमारा ॥
भरत धन्य तुम्ह जसु जगु जयऊ । कहि अस पेम मगन पुनि भयऊ ॥३॥
सुनि मुनि बचन सभासद हरषे । साधु सराहि सुमन सुर बरषे ॥
धन्य धन्य धुनि गगन पयागा । सुनि सुनि भरतु मगन अनुरागा ॥४॥
(दोहा)
पुलक गात हियँ रामु सिय सजल सरोरुह नैन ।
करि प्रनामु मुनि मंडलिहि बोले गदगद बैन ॥ २१० ॥