भरत अपनी व्यथा व्यक्त करता है
एहि दुख दाहँ दहइ दिन छाती । भूख न बासर नीद न राती ॥
एहि कुरोग कर औषधु नाहीं । सोधेउँ सकल बिस्व मन माहीं ॥१॥
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला । तेहिं हमार हित कीन्ह बँसूला ॥
कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू । गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमंत्रु ॥२॥
मोहि लगि यहु कुठाटु तेहिं ठाटा । घालेसि सब जगु बारहबाटा ॥
मिटइ कुजोगु राम फिरि आएँ । बसइ अवध नहिं आन उपाएँ ॥३॥
भरत बचन सुनि मुनि सुखु पाई । सबहिं कीन्ह बहु भाँति बड़ाई ॥
तात करहु जनि सोचु बिसेषी । सब दुखु मिटहि राम पग देखी ॥४॥
(दोहा)
करि प्रबोध मुनिबर कहेउ अतिथि पेमप्रिय होहु ।
कंद मूल फल फूल हम देहिं लेहु करि छोहु ॥ २१२ ॥