मैं ही सर्व अनर्थो का मूल हूँ – भरत
भूपति मरन पेम पनु राखी । जननी कुमति जगतु सबु साखी ॥
देखि न जाहि बिकल महतारी । जरहिं दुसह जर पुर नर नारी ॥१॥
महीं सकल अनरथ कर मूला । सो सुनि समुझि सहिउँ सब सूला ॥
सुनि बन गवनु कीन्ह रघुनाथा । करि मुनि बेष लखन सिय साथा ॥२॥
बिनु पानहिन्ह पयादेहि पाएँ । संकरु साखि रहेउँ एहि घाएँ ॥
बहुरि निहार निषाद सनेहू । कुलिस कठिन उर भयउ न बेहू ॥३॥
अब सबु आँखिन्ह देखेउँ आई । जिअत जीव जड़ सबइ सहाई ॥
जिन्हहि निरखि मग साँपिनि बीछी । तजहिं बिषम बिषु तामस तीछी ॥४॥
(दोहा)
तेइ रघुनंदनु लखनु सिय अनहित लागे जाहि ।
तासु तनय तजि दुसह दुख दैउ सहावइ काहि ॥ २६२ ॥