लक्ष्मण के वचनो से परशुराम क्रोधित
(चौपाई)
तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा । बार बार मोहि लागि बोलावा ॥
सुनत लखन के बचन कठोरा । परसु सुधारि धरेउ कर घोरा ॥१॥
अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू । कटुबादी बालकु बधजोगू ॥
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा । अब यहु मरनिहार भा साँचा ॥२॥
कौसिक कहा छमिअ अपराधू । बाल दोष गुन गनहिं न साधू ॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही । आगें अपराधी गुरुद्रोही ॥३॥
उतर देत छोड़उँ बिनु मारें । केवल कौसिक सील तुम्हारें ॥
न त एहि काटि कुठार कठोरें । गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें ॥४॥
(दोहा)
गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ ।
अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ ॥ २७५ ॥