याज्ञवल्क्य मुनि भरद्वाज आश्रम में
(चौपाई)
एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं । पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं ॥
प्रति संबत अति होइ अनंदा । मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृंदा ॥१॥
एक बार भरि मकर नहाए । सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए ॥
जगबालिक मुनि परम बिबेकी । भरव्दाज राखे पद टेकी ॥२॥
सादर चरन सरोज पखारे । अति पुनीत आसन बैठारे ॥
करि पूजा मुनि सुजस बखानी । बोले अति पुनीत मृदु बानी ॥३॥
नाथ एक संसउ बड़ मोरें । करगत बेदतत्व सबु तोरें ॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा । जौ न कहउँ बड़ होइ अकाजा ॥४॥
(दोहा)
संत कहहि असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव ।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव ॥ ४५ ॥