तपस्वी के वेश में भरत नंदीग्राम में रहे
देह दिनहुँ दिन दूबरि होई । घटइ तेजु बलु मुखछबि सोई ॥
नित नव राम प्रेम पनु पीना । बढ़त धरम दलु मनु न मलीना ॥१॥
जिमि जलु निघटत सरद प्रकासे । बिलसत बेतस बनज बिकासे ॥
सम दम संजम नियम उपासा । नखत भरत हिय बिमल अकासा ॥२॥
ध्रुव बिस्वास अवधि राका सी । स्वामि सुरति सुरबीथि बिकासी ॥
राम पेम बिधु अचल अदोषा । सहित समाज सोह नित चोखा ॥३॥
भरत रहनि समुझनि करतूती । भगति बिरति गुन बिमल बिभूती ॥
बरनत सकल सुकचि सकुचाहीं । सेस गनेस गिरा गमु नाहीं ॥४॥
(दोहा)
नित पूजत प्रभु पाँवरी प्रीति न हृदयँ समाति ।
मागि मागि आयसु करत राज काज बहु भाँति ॥ ३२५ ॥