भरत, शत्रुघ्न और लक्ष्मण की शादी भी संपन्न
(चौपाई)
कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं ॥ नयन लाभु सब सादर लेहीं ॥
जाइ न बरनि मनोहर जोरी । जो उपमा कछु कहौं सो थोरी ॥१॥
राम सीय सुंदर प्रतिछाहीं । जगमगात मनि खंभन माहीं ।
मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा । देखत राम बिआहु अनूपा ॥२॥
दरस लालसा सकुच न थोरी । प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी ॥
भए मगन सब देखनिहारे । जनक समान अपान बिसारे ॥३॥
प्रमुदित मुनिन्ह भावँरी फेरी । नेगसहित सब रीति निबेरीं ॥
राम सीय सिर सेंदुर देहीं । सोभा कहि न जाति बिधि केहीं ॥४॥
अरुन पराग जलजु भरि नीकें । ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें ॥
बहुरि बसिष्ठ दीन्ह अनुसासन । बरु दुलहिनि बैठे एक आसन ॥५॥
(छंद)
बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए ।
तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए ॥
भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा ।
केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगलु महा ॥ १ ॥
तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै ।
माँडवी श्रुतिकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि के ॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई ।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई ॥ २ ॥
जानकी लघु भगिनी सकल सुंदरि सिरोमनि जानि कै ।
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै ॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी ।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी ॥ ३ ॥
अनुरुप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं ।
सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं ॥
सुंदरी सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं ।
जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिमुन सहित बिराजहीं ॥ ४ ॥
(दोहा)
मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि ।
जनु पार महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि ॥ ३२५ ॥