भरत श्रीराम से चित्रकूट-दर्शन की आज्ञा लेता है
एकु मनोरथु बड़ मन माहीं । सभयँ सकोच जात कहि नाहीं ॥
कहहु तात प्रभु आयसु पाई । बोले बानि सनेह सुहाई ॥१॥
चित्रकूट सुचि थल तीरथ बन । खग मृग सर सरि निर्झर गिरिगन ॥
प्रभु पद अंकित अवनि बिसेषी । आयसु होइ त आवौं देखी ॥२॥
अवसि अत्रि आयसु सिर धरहू । तात बिगतभय कानन चरहू ॥
मुनि प्रसाद बनु मंगल दाता । पावन परम सुहावन भ्राता ॥३॥
रिषिनायकु जहँ आयसु देहीं । राखेहु तीरथ जलु थल तेहीं ॥
सुनि प्रभु बचन भरत सुख पावा । मुनि पद कमल मुदित सिरु नावा ॥४॥
(दोहा)
भरत राम संबादु सुनि सकल सुमंगल मूल ।
सुर स्वारथी सराहि कुल बरषत सुरतरु फूल ॥ ३०८ ॥