राजा दशरथ द्वारा पुत्रेष्ठि यज्ञ
(चौपाई)
एक बार भूपति मन माहीं । भै गलानि मोरें सुत नाहीं ॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला । चरन लागि करि बिनय बिसाला ॥१॥
निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ । कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी । त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी ॥२॥
सृंगी रिषहि बसिष्ठ बोलावा । पुत्रकाम सुभ जग्य करावा ॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें । प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें ॥३॥
जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा । सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा ॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई । जथा जोग जेहि भाग बनाई ॥४॥
(दोहा)
तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ ॥
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ ॥ १८९ ॥