अंगद और रावण का संवाद
कह दसकंठ कवन तैं बंदर । मैं रघुबीर दूत दसकंधर ॥
मम जनकहि तोहि रही मिताई । तव हित कारन आयउँ भाई ॥१॥
उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती । सिव बिरंचि पूजेहु बहु भाँती ॥
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा । जीतेहु लोकपाल सब राजा ॥२॥
नृप अभिमान मोह बस किंबा । हरि आनिहु सीता जगदंबा ॥
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा । सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा ॥३॥
दसन गहहु तृन कंठ कुठारी । परिजन सहित संग निज नारी ॥
सादर जनकसुता करि आगें । एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें ॥४॥
(दोहा)
प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि ।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करैगो तोहि ॥ २० ॥