साधु मनगढत कहानियाँ बनाता है
(चौपाई)
तातें गुपुत रहउँ जग माहीं । हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं ॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ । कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ ॥१॥
तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें । प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें ॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही । दारुन दोष घटइ अति मोही ॥२॥
जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा । तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा ॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी । तब बोला तापस बगध्यानी ॥३॥
नाम हमार एकतनु भाई । सुनि नृप बोले पुनि सिरु नाई ॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी । मोहि सेवक अति आपन जानी ॥४॥
(दोहा)
आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि ।
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि ॥ १६२ ॥