संगति की असर
(चौपाई)
अस बिबेक जब देइ बिधाता । तब तजि दोष गुनहिं मनु राता ॥
काल सुभाउ करम बरिआई । भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाई ॥१॥
सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं । दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं ॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू । मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू ॥२॥
लखि सुबेष जग बंचक जेऊ । बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ ॥
उधरहिं अंत न होइ निबाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू ॥३॥
किएहुँ कुबेष साधु सनमानू । जिमि जग जामवंत हनुमानू ॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू । लोकहुँ बेद बिदित सब काहू ॥४॥
गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा । कीचहिं मिलइ नीच जल संगा ॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं । सुमिरहिं राम देहिं गनि गारी ॥५॥
धूम कुसंगति कारिख होई । लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई ॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता । होइ जलद जग जीवन दाता ॥६॥
(दोहा)
ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग ।
होहि कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ॥ ७(क) ॥
सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह ।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह ॥ ७(ख) ॥
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि ।
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि ॥ ७(ग) ॥
देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब ।
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब ॥ ७(घ) ॥