राम-सीता के लग्न की प्रतिक्षा
(चौपाई)
जनक सुकृत मूरति बैदेही । दसरथ सुकृत रामु धरें देही ॥
इन्ह सम काँहु न सिव अवराधे । काहिँ न इन्ह समान फल लाधे ॥१॥
इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं । है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं ॥
हम सब सकल सुकृत कै रासी । भए जग जनमि जनकपुर बासी ॥२॥
जिन्ह जानकी राम छबि देखी । को सुकृती हम सरिस बिसेषी ॥
पुनि देखब रघुबीर बिआहू । लेब भली बिधि लोचन लाहू ॥३॥
कहहिं परसपर कोकिलबयनीं । एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं ॥
बड़ें भाग बिधि बात बनाई । नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई ॥४॥
(दोहा)
बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय ।
लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय ॥ ३१० ॥