हनुमानजी श्रीराम को अपना परिचय देते है
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें । सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें ॥
नाथ जीव तव मायाँ मोहा । सो निस्तरइ तुम्हारेहिं छोहा ॥१॥
ता पर मैं रघुबीर दोहाई । जानउँ नहिं कछु भजन उपाई ॥
सेवक सुत पति मातु भरोसें । रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें ॥ २॥
अस कहि परेउ चरन अकुलाई । निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई ॥
तब रघुपति उठाइ उर लावा । निज लोचन जल सींचि जुड़ावा ॥३॥
सुनु कपि जियँ मानसि जनि ऊना । तैं मम प्रिय लछिमन ते दूना ॥
समदरसी मोहि कह सब कोऊ । सेवक प्रिय अनन्यगति सोऊ ॥४॥
(दोहा)
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ॥ ३ ॥