कालनेमि का नाश, हनुमानजी ने संजीवनी बुटी के लिए पर्वत उठाया
कपि तव दरस भइउँ निष्पापा । मिटा तात मुनिबर कर सापा ॥
मुनि न होइ यह निसिचर घोरा । मानहु सत्य बचन कपि मोरा ॥१॥
अस कहि गई अपछरा जबहीं । निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं ॥
कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू । पाछें हमहि मंत्र तुम्ह देहू ॥२॥
सिर लंगूर लपेटि पछारा । निज तनु प्रगटेसि मरती बारा ॥
राम राम कहि छाड़ेसि प्राना । सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना ॥३॥
देखा सैल न औषध चीन्हा । सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा ॥
गहि गिरि निसि नभ धावत भयऊ । अवधपुरी उपर कपि गयऊ ॥४॥
(दोहा)
देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि ।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि ॥ ५८ ॥