हनुमानजी की कालनेमि राक्षस से भेंट
अस कहि चला रचिसि मग माया । सर मंदिर बर बाग बनाया ॥
मारुतसुत देखा सुभ आश्रम । मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम ॥१॥
राच्छस कपट बेष तहँ सोहा । मायापति दूतहि चह मोहा ॥
जाइ पवनसुत नायउ माथा । लाग सो कहै राम गुन गाथा ॥२॥
होत महा रन रावन रामहिं । जितहहिं राम न संसय या महिं ॥
इहाँ भएँ मैं देखेउँ भाई । ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई ॥३॥
मागा जल तेहिं दीन्ह कमंडल । कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल ॥
सर मज्जन करि आतुर आवहु । दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु ॥४॥
(दोहा)
सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान ।
मारी सो धरि दिव्य तनु चली गगन चढ़ि जान ॥ ५७ ॥