समुद्र पार करने के लिए हनुमानजी तैयार
अंगद कहइ जाउँ मैं पारा । जियँ संसय कछु फिरती बारा ॥
जामवंत कह तुम्ह सब लायक । पठइअ किमि सब ही कर नायक ॥१॥
कहइ रीछपति सुनु हनुमाना । का चुप साधि रहेहु बलवाना ॥
पवन तनय बल पवन समाना । बुधि बिबेक बिग्यान निधाना ॥२॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं । जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं ॥
राम काज लगि तब अवतारा । सुनतहिं भयउ पर्वताकारा ॥३॥
कनक बरन तन तेज बिराजा । मानहु अपर गिरिन्ह कर राजा ॥
सिंहनाद करि बारहिं बारा । लीलहीं नाषउँ जलनिधि खारा ॥४॥
सहित सहाय रावनहि मारी । आनउँ इहाँ त्रिकूट उपारी ॥
जामवंत मैं पूँछउँ तोही । उचित सिखावनु दीजहु मोही ॥५॥
एतना करहु तात तुम्ह जाई । सीतहि देखि कहहु सुधि आई ॥
तब निज भुज बल राजिव नैना । कौतुक लागि संग कपि सेना ॥६॥
(छंद)
कपि सेन संग सँघारि निसिचर रामु सीतहि आनिहैं ।
त्रैलोक पावन सुजसु सुर मुनि नारदादि बखानिहैं ॥
जो सुनत गावत कहत समुझत परम पद नर पावई ।
रघुबीर पद पाथोज मधुकर दास तुलसी गावई ॥
(दोहा)
भव भेषज रघुनाथ जसु सुनहि जे नर अरु नारि ।
तिन्ह कर सकल मनोरथ सिद्ध करिहि त्रिसिरारि ॥ ३०(क) ॥
(सोरठा)
नीलोत्पल तन स्याम काम कोटि सोभा अधिक ।
सुनिअ तासु गुन ग्राम जासु नाम अघ खग बधिक ॥ ३०(ख) ॥
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने चतुर्थ सोपानः समाप्तः ।
॥ किष्किन्धाकाण्ड समाप्त ॥