महाराजा जनक का दूत अवध पहूँचा
(चौपाई)
पहुँचे दूत राम पुर पावन । हरषे नगर बिलोकि सुहावन ॥
भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई । दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई ॥१॥
करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही । मुदित महीप आपु उठि लीन्ही ॥
बारि बिलोचन बाचत पाँती । पुलक गात आई भरि छाती ॥२॥
रामु लखनु उर कर बर चीठी । रहि गए कहत न खाटी मीठी ॥
पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची । हरषी सभा बात सुनि साँची ॥३॥
खेलत रहे तहाँ सुधि पाई । आए भरतु सहित हित भाई ॥
पूछत अति सनेहँ सकुचाई । तात कहाँ तें पाती आई ॥४॥
(दोहा)
कुसल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस ।
सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस ॥ २९० ॥