Thursday, 14 November, 2024

Kaikeyi enter kop-bhavan

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कैकेयी कोपभुवन में गई  
 
कुबरिहि रानि प्रानप्रिय जानी । बार बार बड़ि बुद्धि बखानी ॥
तोहि सम हित न मोर संसारा । बहे जात कइ भइसि अधारा ॥१॥
 
जौं बिधि पुरब मनोरथु काली । करौं तोहि चख पूतरि आली ॥
बहुबिधि चेरिहि आदरु देई । कोपभवन गवनि कैकेई ॥२॥
 
बिपति बीजु बरषा रितु चेरी । भुइँ भइ कुमति कैकेई केरी ॥
पाइ कपट जलु अंकुर जामा । बर दोउ दल दुख फल परिनामा ॥३॥
 
कोप समाजु साजि सबु सोई । राजु करत निज कुमति बिगोई ॥
राउर नगर कोलाहलु होई । यह कुचालि कछु जान न कोई ॥४॥
 
(दोहा)  
प्रमुदित पुर नर नारि । सब सजहिं सुमंगलचार ।
एक प्रबिसहिं एक निर्गमहिं भीर भूप दरबार ॥ २३ ॥

 

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