कामदेव नाकामियाब, नारद का अहंकार सातवें आसमान पर
(चौपाई)
भयउ न नारद मन कछु रोषा । कहि प्रिय बचन काम परितोषा ॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई । गयउ मदन तब सहित सहाई ॥१॥
मुनि सुसीलता आपनि करनी । सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी ॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा । मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा ॥२॥
तब नारद गवने सिव पाहीं । जिता काम अहमिति मन माहीं ॥
मार चरित संकरहिं सुनाए । अतिप्रिय जानि महेस सिखाए ॥३॥
बार बार बिनवउँ मुनि तोहीं । जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं ॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ । चलेहुँ प्रसंग दुराएडु तबहूँ ॥४॥
(दोहा)
संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान ।
भारद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान ॥ १२७ ॥