शिकार का पीछा करते प्रतापभानु एक अज्ञात स्थान में पहूँचता है
(चौपाई)
फिरत बिपिन आश्रम एक देखा । तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा ॥
जासु देस नृप लीन्ह छड़ाई । समर सेन तजि गयउ पराई ॥१॥
समय प्रतापभानु कर जानी । आपन अति असमय अनुमानी ॥
गयउ न गृह मन बहुत गलानी । मिला न राजहि नृप अभिमानी ॥२॥
रिस उर मारि रंक जिमि राजा । बिपिन बसइ तापस कें साजा ॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा । यह प्रतापरबि तेहि तब चीन्हा ॥३॥
राउ तृषित नहि सो पहिचाना । देखि सुबेष महामुनि जाना ॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा । परम चतुर न कहेउ निज नामा ॥४॥
(दोहा)
भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरु दीन्ह देखाइ ।
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ ॥ १५८ ॥