महाराजा जनक विश्वामित्र का आभार मानते है
(चौपाई)
अति गहगहे बाजने बाजे । सबहिं मनोहर मंगल साजे ॥
जूथ जूथ मिलि सुमुख सुनयनीं । करहिं गान कल कोकिलबयनी ॥१॥
सुखु बिदेह कर बरनि न जाई । जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई ॥
गत त्रास भइ सीय सुखारी । जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी ॥२॥
जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा । प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा ॥
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं । अब जो उचित सो कहिअ गोसाई ॥३॥
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना । रहा बिबाहु चाप आधीना ॥
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू । सुर नर नाग बिदित सब काहु ॥४॥
(दोहा)
तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु ।
बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु ॥ २८६ ॥