रावण का भाई – कुंभकर्ण
(चौपाई)
सुख संपति सुत सेन सहाई । जय प्रताप बल बुद्धि बड़ाई ॥
नित नूतन सब बाढ़त जाई । जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई ॥१॥
अतिबल कुंभकरन अस भ्राता । जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता ॥
करइ पान सोवइ षट मासा । जागत होइ तिहुँ पुर त्रासा ॥२॥
जौं दिन प्रति अहार कर सोई । बिस्व बेगि सब चौपट होई ॥
समर धीर नहिं जाइ बखाना । तेहि सम अमित बीर बलवाना ॥३॥
बारिदनाद जेठ सुत तासू । भट महुँ प्रथम लीक जग जासू ॥
जेहि न होइ रन सनमुख कोई । सुरपुर नितहिं परावन होई ॥४॥
(दोहा)
कुमुख अकंपन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय ।
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय ॥ १८० ॥