जनक महाराज के वचनों से लक्ष्मण उग्र
(चौपाई)
कहहु काहि यहु लाभु न भावा । काहुँ न संकर चाप चढ़ावा ॥
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई । तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई ॥१॥
अब जनि कोउ माखै भट मानी । बीर बिहीन मही मैं जानी ॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू । लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू ॥२॥
सुकृत जाइ जौं पनु परिहरऊँ । कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ ॥
जो जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई । तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई ॥३॥
जनक बचन सुनि सब नर नारी । देखि जानकिहि भए दुखारी ॥
माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें । रदपट फरकत नयन रिसौंहें ॥४॥
(दोहा)
कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान ।
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान ॥ २५२ ॥