भगवान शंकर पार्वती को यज्ञ में भाग न लेने के लिए समजाते है
(चौपाई)
कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा । यह अनुचित नहिं नेवत पठावा ॥
दच्छ सकल निज सुता बोलाई । हमरें बयर तुम्हउ बिसराई ॥१॥
ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना । तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना ॥
जौं बिनु बोलें जाहु भवानी । रहइ न सीलु सनेहु न कानी ॥२॥
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा । जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा ॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई । तहाँ गएँ कल्यानु न होई ॥३॥
भाँति अनेक संभु समुझावा । भावी बस न ग्यानु उर आवा ॥
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ । नहिं भलि बात हमारे भाएँ ॥४॥
(दोहा)
कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि ।
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि ॥ ६२ ॥