मेघनाद युद्धभूमि में चला
परिहरि बयरु देहु बैदेही । भजहु कृपानिधि परम सनेही ॥
ताके बचन बान सम लागे । करिआ मुह करि जाहि अभागे ॥१॥
बूढ़ भएसि न त मरतेउँ तोही । अब जनि नयन देखावसि मोही ॥
तेहि अपने मन अस अनुमाना । बध्यो चहत एहि कृपानिधाना ॥२॥
सो उठि गयउ कहत दुर्बादा । तब सकोप बोलेउ घननादा ॥
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा । करिहउँ बहुत कहौं का थोरा ॥३॥
सुनि सुत बचन भरोसा आवा । प्रीति समेत अंक बैठावा ॥
करत बिचार भयउ भिनुसारा । लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा ॥४॥
कोपि कपिन्ह दुर्घट गढ़ु घेरा । नगर कोलाहलु भयउ घनेरा ॥
बिबिधायुध धर निसिचर धाए । गढ़ ते पर्बत सिखर ढहाए ॥५॥
(छंद)
ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले ।
घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले ॥
मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए ।
गहि सैल तेहि गढ़ पर चलावहिं जहँ सो तहँ निसिचर हए ॥
(दोहा)
मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ़ु पुनि छेंका आइ ।
उतर्यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ ॥ ४९ ॥