वानरसेना लंका पहूँची
अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई । बिहँसि चले कृपाल रघुराई ॥
सेन सहित उतरे रघुबीरा । कहि न जाइ कपि जूथप भीरा ॥१॥
सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा । सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा ॥
खाहु जाइ फल मूल सुहाए । सुनत भालु कपि जहँ तहँ धाए ॥२॥
सब तरु फरे राम हित लागी । रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी ॥
खाहिं मधुर फल बटप हलावहिं । लंका सन्मुख सिखर चलावहिं ॥३॥
जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं । घेरि सकल बहु नाच नचावहिं ॥
दसनन्हि काटि नासिका काना । कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना ॥४॥
जिन्ह कर नासा कान निपाता । तिन्ह रावनहि कही सब बाता ॥
सुनत श्रवन बारिधि बंधाना । दस मुख बोलि उठा अकुलाना ॥५॥
(दोहा)
बांध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस ।
सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस ॥ ५ ॥