वानरो ने यज्ञ भंग किया, लक्ष्मण के बाण से मेघनाद की मृत्यु
जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा । आहुति देत रुधिर अरु भैंसा ॥
कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा । जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा ॥१॥
तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई । लातन्हि हति हति चले पराई ॥
लै त्रिसुल धावा कपि भागे । आए जहँ रामानुज आगे ॥२॥
आवा परम क्रोध कर मारा । गर्ज घोर रव बारहिं बारा ॥
कोपि मरुतसुत अंगद धाए । हति त्रिसूल उर धरनि गिराए ॥३॥
प्रभु कहँ छाँड़ेसि सूल प्रचंडा । सर हति कृत अनंत जुग खंडा ॥
उठि बहोरि मारुति जुबराजा । हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा ॥४॥
फिरे बीर रिपु मरइ न मारा । तब धावा करि घोर चिकारा ॥
आवत देखि क्रुद्ध जनु काला । लछिमन छाड़े बिसिख कराला ॥५॥
देखेसि आवत पबि सम बाना । तुरत भयउ खल अंतरधाना ॥
बिबिध बेष धरि करइ लराई । कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई ॥६॥
देखि अजय रिपु डरपे कीसा । परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा ॥
लछिमन मन अस मंत्र दृढ़ावा । एहि पापिहि मैं बहुत खेलावा ॥७॥
सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा । सर संधान कीन्ह करि दापा ॥
छाड़ा बान माझ उर लागा । मरती बार कपटु सब त्यागा ॥८॥
(दोहा)
रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँड़ेसि प्रान ।
धन्य धन्य तव जननी कह अंगद हनुमान ॥ ७६ ॥