विश्वमोहिनी के स्वयंवर में नारदजी
(चौपाई)
जेंहि समाज बैंठे मुनि जाई । हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई ॥
तहँ बैठ महेस गन दोऊ । बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ ॥१॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई । नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई ॥
रीझहि राजकुअँरि छबि देखी । इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी ॥२॥
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ । हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी । समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी ॥३॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा । सो सरूप नृपकन्याँ देखा ॥
मर्कट बदन भयंकर देही । देखत हृदयँ क्रोध भा तेही ॥४॥
(दोहा)
सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल ।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल ॥ १३४ ॥