नारदजी ने भगवान विष्णु को दोषी ठहराया
(चौपाई)
पुनि जल दीख रूप निज पावा । तदपि हृदयँ संतोष न आवा ॥
फरकत अधर कोप मन माहीं । सपदी चले कमलापति पाहीं ॥१॥
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई । जगत मोर उपहास कराई ॥
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी । संग रमा सोइ राजकुमारी ॥२॥
बोले मधुर बचन सुरसाईं । मुनि कहँ चले बिकल की नाईं ॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा । माया बस न रहा मन बोधा ॥३॥
पर संपदा सकहु नहिं देखी । तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी ॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु । सुरन्ह प्रेरी बिष पान करायहु ॥४॥
(दोहा)
असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु ।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु ॥ १३६ ॥