प्रभु ने माया का आवरण हटाया, नारदजी को सच्चाई का पता चला
(चौपाई)
जब हरि माया दूरि निवारी । नहिं तहँ रमा न राजकुमारी ॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना । गहे पाहि प्रनतारति हरना ॥१॥
मृषा होउ मम श्राप कृपाला । मम इच्छा कह दीनदयाला ॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे । कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे ॥२॥
जपहु जाइ संकर सत नामा । होइहि हृदयँ तुरंत बिश्रामा ॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें । असि परतीति तजहु जनि भोरें ॥३॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी । सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई । अब न तुम्हहि माया निअराई ॥४॥
(दोहा)
बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान ॥
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥ १३८ ॥