विश्वमोहिनी न मिली, कुरुप बनानेवाले को शाप दिया
(चौपाई)
जेहि दिसि बैठे नारद फूली । सो दिसि देहि न बिलोकी भूली ॥
पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं । देखि दसा हर गन मुसकाहीं ॥१॥
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला । कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला ॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा । नृपसमाज सब भयउ निरासा ॥२॥
मुनि अति बिकल मोंहँ मति नाठी । मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी ॥
तब हर गन बोले मुसुकाई । निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ॥३॥
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी । बदन दीख मुनि बारि निहारी ॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा । तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा ॥४॥
(दोहा)
होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ ॥ १३५ ॥