नारदजी की बात से मेना संतुष्ट
(चौपाई)
तब मयना हिमवंतु अनंदे । पुनि पुनि पारबती पद बंदे ॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने । नगर लोग सब अति हरषाने ॥१॥
लगे होन पुर मंगलगाना । सजे सबहि हाटक घट नाना ॥
भाँति अनेक भई जेवराना । सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा ॥२॥
सो जेवनार कि जाइ बखानी । बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी ॥
सादर बोले सकल बराती । बिष्नु बिरंचि देव सब जाती ॥३॥
बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा । लागे परुसन निपुन सुआरा ॥
नारिबृंद सुर जेवँत जानी । लगीं देन गारीं मृदु बानी ॥४॥
(छंद)
गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहीं ।
भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं ॥
जेवँत जो बढ़्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो ।
अचवाँइ दीन्हे पान गवने बास जहँ जाको रह्यो ॥
(दोहा)
बहुरि मुनिन्ह हिमवंत कहुँ लगन सुनाई आइ ।
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ ॥ ९९ ॥