परशुराम को धनुष्यभंग करनेवाले को दंड देना चाहते है
(चौपाई)
नाथ संभुधनु भंजनिहारा । होइहि केउ एक दास तुम्हारा ॥
आयसु काह कहिअ किन मोही । सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही ॥ १ ॥
सेवकु सो जो करै सेवकाई । अरि करनी करि करिअ लराई ॥
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा । सहसबाहु सम सो रिपु मोरा ॥ २ ॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा । न त मारे जैहहिं सब राजा ॥
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने । बोले परसुधरहि अपमाने ॥ ३ ॥
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं । कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं ॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू । सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू ॥ ४ ॥
(दोहा)
रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार ॥
धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार ॥ २७१ ॥