प्रतापभानु की छद्म वेश में रहते अपने शत्रु से स्थान पर जा पहूँचा
(चौपाई)
गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ । निज आश्रम तापस लै गयऊ ॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी । पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी ॥१॥
को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें । सुंदर जुबा जीव परहेलें ॥
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें । देखत दया लागि अति मोरें ॥२॥
नाम प्रतापभानु अवनीसा । तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा ॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई । बडे भाग देखउँ पद आई ॥३॥
हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा । जानत हौं कछु भल होनिहारा ॥
कह मुनि तात भयउ अँधियारा । जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा ॥४॥
(दोहा)
निसा घोर गम्भीर बन पंथ न सुनहु सुजान ।
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान ॥ १५९(क) ॥
तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ ।
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ ॥ १५९(ख) ॥