राम-लक्ष्मण पिता दशरथ को मिले
(चौपाई)
निज निज बास बिलोकि बराती । सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती ॥
बिभव भेद कछु कोउ न जाना । सकल जनक कर करहिं बखाना ॥१॥
सिय महिमा रघुनायक जानी । हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी ॥
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई । हृदयँ न अति आनंदु अमाई ॥२॥
सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं । पितु दरसन लालचु मन माहीं ॥
बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी । उपजा उर संतोषु बिसेषी ॥३॥
हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए । पुलक अंग अंबक जल छाए ॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे । मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे ॥४॥
(दोहा)
भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत ।
उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत ॥ ३०७ ॥