राम-लक्ष्मण का कुलगुरु वशिष्ठ और परिवारजनों से मिलाप
(चौपाई)
मुनिहि दंडवत कीन्ह महीसा । बार बार पद रज धरि सीसा ॥
कौसिक राउ लिये उर लाई । कहि असीस पूछी कुसलाई ॥१॥
पुनि दंडवत करत दोउ भाई । देखि नृपति उर सुखु न समाई ॥
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे । मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे ॥२॥
पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए । प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए ॥
बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाईं । मन भावती असीसें पाईं ॥३॥
भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा । लिए उठाइ लाइ उर रामा ॥
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता । मिले प्रेम परिपूरित गाता ॥४॥
(दोहा)
पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत ।
मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत ॥ ३०८ ॥