राम-लक्ष्मण परशुराम को प्रणाम करते है
(चौपाई)
देखत भृगुपति बेषु कराला । उठे सकल भय बिकल भुआला ॥
पितु समेत कहि कहि निज नामा । लगे करन सब दंड प्रनामा ॥१॥
जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी । सो जानइ जनु आइ खुटानी ॥
जनक बहोरि आइ सिरु नावा । सीय बोलाइ प्रनामु करावा ॥२॥
आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं । निज समाज लै गई सयानीं ॥
बिस्वामित्रु मिले पुनि आई । पद सरोज मेले दोउ भाई ॥३॥
रामु लखनु दसरथ के ढोटा । दीन्हि असीस देखि भल जोटा ॥
रामहि चितइ रहे थकि लोचन । रूप अपार मार मद मोचन ॥४॥
(दोहा)
बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर ॥
पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर ॥ २६९ ॥