रामचरितमानस कथाप्रारंभ
(चौपाई)
दरस परस मज्जन अरु पाना । हरइ पाप कह बेद पुराना ॥
नदी पुनीत अमित महिमा अति । कहि न सकइ सारद बिमलमति ॥१॥
राम धामदा पुरी सुहावनि । लोक समस्त बिदित अति पावनि ॥
चारि खानि जग जीव अपारा । अवध तजे तनु नहि संसारा ॥२॥
सब बिधि पुरी मनोहर जानी । सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी ॥
बिमल कथा कर कीन्ह अरंभा । सुनत नसाहिं काम मद दंभा ॥३॥
रामचरितमानस एहि नामा । सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा ॥
मन करि विषय अनल बन जरई । होइ सुखी जौ एहिं सर परई ॥४॥
रामचरितमानस मुनि भावन । बिरचेउ संभु सुहावन पावन ॥
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन । कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन ॥५॥
रचि महेस निज मानस राखा । पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा ॥
तातें रामचरितमानस बर । धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर ॥६॥
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई । सादर सुनहु सुजन मन लाई ॥७॥
(दोहा)
जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु ।
अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा बृषकेतु ॥ ३५ ॥