रामचरितमानस की महिमा
(चौपाई)
मनि मानिक मुकुता छबि जैसी । अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी ॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई । लहहिं सकल सोभा अधिकाई ॥१॥
तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं । उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं ॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई । सुमिरत सारद आवति धाई ॥२॥
राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ । सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी । गावहिं हरि जस कलि मल हारी ॥३॥
कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना । सिर धुनि गिरा लगत पछिताना ॥
हृदय सिंधु मति सीप समाना । स्वाति सारदा कहहिं सुजाना ॥४॥
जौं बरषइ बर बारि बिचारू । होहिं कबित मुकुतामनि चारू ॥५॥
(दोहा)
जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग ।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग ॥ ११ ॥