रावण असुरों को सभी यज्ञ ध्वंश करने की आज्ञा देता है
(चौपाई)
कामरूप जानहिं सब माया । सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया ॥
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा । देखि अमित आपन परिवारा ॥१॥
सुत समूह जन परिजन नाती । गे को पार निसाचर जाती ॥
सेन बिलोकि सहज अभिमानी । बोला बचन क्रोध मद सानी ॥२॥
सुनहु सकल रजनीचर जूथा । हमरे बैरी बिबुध बरूथा ॥
ते सनमुख नहिं करही लराई । देखि सबल रिपु जाहिं पराई ॥३॥
तेन्ह कर मरन एक बिधि होई । कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई ॥
द्विजभोजन मख होम सराधा ॥ सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा ॥४॥
(दोहा)
छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ ।
तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ भली भाँति अपनाइ ॥ १८१ ॥