साधुने अभक्ष्य भोजन पकाया, राजाने परोसा
(चौपाई)
उपरोहित जेवनार बनाई । छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई ॥
मायामय तेहिं कीन्ह रसोई । बिंजन बहु गनि सकइ न कोई ॥१॥
बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा । तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा ॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए । पद पखारि सादर बैठाए ॥२॥
परुसन जबहिं लाग महिपाला । भै अकासबानी तेहि काला ॥
बिप्रबृंद उठि उठि गृह जाहू । है बड़ि हानि अन्न जनि खाहू ॥३॥
भयउ रसोईं भूसुर माँसू । सब द्विज उठे मानि बिस्वासू ॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी । भावी बस आव मुख बानी ॥४॥
(दोहा)
बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार ।
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ़ सहित परिवार ॥ १७३ ॥