भगवान शंकर का वर्णन
सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा । जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा ॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला । तन बिभूति पट केहरि छाला ॥१॥
ससि ललाट सुंदर सिर गंगा । नयन तीनि उपबीत भुजंगा ॥
गरल कंठ उर नर सिर माला । असिव बेष सिवधाम कृपाला ॥२॥
कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा । चले बसहँ चढ़ि बाजहिं बाजा ॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं । बर लायक दुलहिनि जग नाहीं ॥३॥
बिष्नु बिरंचि आदि सुरब्राता । चढ़ि चढ़ि बाहन चले बराता ॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा । नहिं बरात दूलह अनुरूपा ॥४॥
(दोहा)
बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज ।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज ॥ ९२ ॥