नारदजी की कहानी
(चौपाई)
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि । बह समीप सुरसरी सुहावनि ॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा । देखि देवरिषि मन अति भावा ॥१॥
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा । भयउ रमापति पद अनुरागा ॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी । सहज बिमल मन लागि समाधी ॥२॥
मुनि गति देखि सुरेस डेराना । कामहि बोलि कीन्ह समाना ॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू । चकेउ हरषि हियँ जलचरकेतू ॥३॥
सुनासीर मन महुँ असि त्रासा । चहत देवरिषि मम पुर बासा ॥
जे कामी लोलुप जग माहीं । कुटिल काक इव सबहि डेराहीं ॥४॥
(दोहा)
सुख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज ।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज ॥ १२५ ॥