तुलसीदास की विनम्रता
(चौपाई)
आकर चारि लाख चौरासी । जाति जीव जल थल नभ बासी ॥
सीय राममय सब जग जानी । करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी ॥१॥
जानि कृपाकर किंकर मोहू । सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू ॥
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं । तातें बिनय करउँ सब पाही ॥२॥
करन चहउँ रघुपति गुन गाहा । लघु मति मोरि चरित अवगाहा ॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ । मन मति रंक मनोरथ राऊ ॥३॥
मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी । चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी ॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई । सुनिहहिं बालबचन मन लाई ॥४॥
जौ बालक कह तोतरि बाता । सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता ॥
हँसिहहि कूर कुटिल कुबिचारी । जे पर दूषन भूषनधारी ॥५॥
निज कवित केहि लाग न नीका । सरस होउ अथवा अति फीका ॥
जे पर भनिति सुनत हरषाही । ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं ॥६॥
जग बहु नर सर सरि सम भाई । जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई ॥
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई । देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई ॥७॥
(दोहा)
भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास ।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करहहिं उपहास ॥ ८ ॥